लखनऊ के वो बारह साल भूल जाऊं में कैसे?
प्रातः काल के वो नमस्ते नमस्कारो की बौछार, वो दोस्त-यार चार, भूल जाऊं मैं कैसे?
हजरत गंज की वो जवान टोलियों कि चहल पहल, इमामबादे और भूल भूलईया का वो महल, भूल जाऊं मैं कैसे?
बात करने का वो लखनवी स्टाइल, पडोसी की लडकी की वो मीठी स्माइल, भूल जाऊं मैं कैसे?
सात महिने के गर्भ पेट वाले वो ठुल्ले, चौक में लजीज कबाब बनाते हुए वो मुल्ले, भूल जाऊं मैं कैसे?
मेरे यार, लखनऊ के वो बारह साल भूल जाऊं में कैसे?
बैंजो, भूलने को कौन कहता है? याद रख न!!
बहरहाल, मैं तहे दिल से आभारी हूँ इस शहर का जिसने मुझे दी हैं हिंदी! ऐसी हिंदी जो नही है "जास्ती, आयिंगा, जाईन्गा ..." जैसी!
लिखने बैठूं तो शायद कुछ अच्छा लिख दूं! कई अनुभव ऐसे है जिनको हिंदी में न लिखकर यदी अंग्रेजी में लिखूं तो मेरे ख़याल से वे नीरस लगेंगे। तो "यो मैंन" और पश्चिमी सभ्यता के व्यक्तित्व वाले लोगों से निवेदन है कि पढ़ते वक़्त सहनशीलता बरते और अंत में अपनी विशेष टिपण्णी बताये जगह पर छोड दे। समय मिलते ही गौर फ़रमाया दिया जाएगा!
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